कोई भाषा तब मरती है जब वैश्वीकरण और सांस्कृतिक दबाव के कारण, कुछ शक्तिशाली भाषाएँ दुनिया भर में हावी हो जाती हैं, जैसे अंग्रेज़ी या फ़्रांसीसी के कारण हमारी राज्यीय भाषाएँ या मातृभाषाएँ (पंजाबी, मराठी आदि) कम महत्वपूर्ण हो गई हैं।
अब रोज़गार के अवसर भी अधिकतर उन भाषाओं में होते हैं, जो अधिक व्यापक रूप से बोली जाती हैं, ज़ाहिर सी बात है कि लोग अंग्रेज़ी पढ़ाई करना चाहते हैं, जिससे उनकी अपनी बोली प्रभावित होती है।
चूँकि लोग व्यापक भाषाओं में पढ़ाई करना चाहते हैं, सरकारें बिना सोचे-समझे शिक्षा प्रणाली में बदलाव कर देती हैं, बिना दूरगामी परिणामों की चिंता किए बग़ैर।
अब होता ये है कि आम आदमी अपनी भाषा के प्रति लगाव, मोह और आदर छोड़ने लगता है, माँओं का ज़ोर अंग्रेज़ी आदि सिखाने में अधिक लगने लगता है।
समाज में धीरे-धीरे वैश्विक स्तर की भाषाएँ बोलना प्रतिष्ठा-चिह्न बन जाता है, लोग जान-बूझ कर अपने आप को और अधिक समकालीन दिखाने की होड़ में अपनी भाषा में जबरदस्ती विदेशी भाषाओं के शब्द ले आने लगते हैं।
धीरे-धीरे स्थानीय भाषाओं में लेखन (कविताएँ, कहानियाँ) आदि कम हो जाता है, उस भाषा के समाचार पत्र छपने बंद हो जाते हैं, फ़िल्में आदि बनना बंद हो जाती हैं क्योंकि कोई भी उस भाषा में रह कर अपने आप को नीचा नहीं दिखाना चाहता है, घाटे में नहीं रहना चाहता है।
एक समय केवल उस भाषा-क्षेत्र के बुज़ुर्ग ही उस भाषा में संवाद करने वाले बच जाते हैं, यानी जितनी उम्र बुजुर्गों की है, लगभग उतनी ही उस स्थानीय भाषा की भी।
अब सवाल ये है कि क्या फ़तवे जारी कर के कोई भाषा बचाई जा सकती है या किसी को पीट कर उसे जबरदस्ती कोई भाषा बुलवा कर, वो भाषा बचाई जा सकती है?
जवाब आपको पता है। आपको ये भी पता है कि राजनीति की रोटियाँ भाषा के चूल्हे पर भी पकनी शुरू हो गई हैं।
-लिटरेरी घराना के लिए कमल पुरी