कक्षा-नौवीं ,पाठ - 5(मैंने कहा, पेड़)

                                                                   पाठ - 5

                                                                मैंने कहा, पेड़

                                                  सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय'

     सप्रसंग व्याख्या

1)  मैंने कहा, "पेड़, तुम इतने बड़े हो,

     इतने कड़े हो,

     जाने कितने सौ बरसों के आँधी-पानी में

     सिर ऊँचा किये अपनी जगह अड़े हो।

     सूरज उगता-डूबता है, चाँद मरता-छीजता है

     ऋतुएँ बदलती हैं, मेघ उमड़ता-पसीजता है,

     और तुम सब सहते हुए

     संतुलित शान्त धीर रहते हुए

     विनम्र हरियाली से ढँके, पर भीतर ठोठ कठैठ खड़े हो।

     काँपा पेड़, मर्मरित पत्तियाँ

     बोली मानो, नहीं, नहीं, नहीं, झूठा श्रेय मुझे मत दो!

प्रसंग- प्रस्तुत पँक्तियाँ सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' जी द्वारा रचित कविता 'मैंने कहा, पेड़' में से ली गई हैं। इस कविता में कवि ने पेड़ की सहनशीलता और सबलता को प्रस्तुत किया है। पेड़ अनेक मुसीबतें सहता हुआ भी शांत खड़ा रहता है और साथ ही अपने बढ़ने का श्रेय किसी और को देता है।

व्याख्या- कवि कहता है कि मैंने पेड़ से कहा कि हे पेड़, तुम इतने बड़े हो। इतने सख़्त और मज़बूत हो। पता नहीं कितने सौ वर्षों के आँधी-तूफान,पानी को तुमने अपने ऊपर झेला है लेकिन फिर भी तुम अपना सिर ऊँचा करके अपनी जगह पर स्थिर खड़े हो। प्रतिदिन सूरज निकलता है और शाम को फिर डूब जाता है और रात के समय चाँद भी निकलता है और कभी छिप जाता है। ॠतुएँ निरन्तर बदलती रहती हैं। बादल उमड़-घुमड़ कर आते हैं तो कभी बरस कर अपना दया-भाव प्रकट कर देते हैं लेकिन तुम इन सब को सहते हुए समान भाव से शांति और धैर्य से रहते हुए अपने आपको हरे-हरे पत्तों वाली विनीत हरियाली से ढँके रहते हो, लेकिन अंदर से तुम सख़्त हो,मज़बूत हो। अपनी प्रशंसा सुनकर  पेड़ काँपा और उसकी पत्तियां मर्मर ध्वनि करती हुईं ऐसी प्रतीत हुईं कि जैसे वे बोल रही हों कि नहीं,नहीं मेरी सहनशीलता और सबलता की झूठी प्रशंसा मत करो।

2) मैं तो बार-बार झुकता, गिरता, उखड़ता

   या कि सूखा ठूँठ हो के टूट जाता,

   श्रेय है तो मेरे पैरों-तले इस मिट्टी को

   जिसमें जाने कहाँ मेरी जड़ें खोयी हैं:

   ऊपर उठा हूँ उतना ही आश में

    जितना कि मेरी जड़ें नीचे दूर धरती में समाई हैं।

    श्रेय कुछ मेरा नहीं, जो है इस नामहीन मिट्टी का।

    और, हाँ, इन सब उगने-डूबने, भरने- छीजने,

    बदलने, गलने, पसीजने,

    बनने-मिटने वालों का भी:

    शतियों से मैंने बस एक सीख पाई है:

     जो मरण-धर्मा हैं वे ही जीवनदायी  हैं।"

प्रसंग- प्रस्तुत पँक्तियाँ सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' जी द्वारा रचित कविता 'मैंने कहा, पेड़' में से ली गई हैं। इस कविता में कवि ने पेड़ की सहनशीलता और सबलता को प्रस्तुत किया है। पेड़ अनेक मुसीबतें सहता हुआ भी शांत खड़ा रहता है और साथ ही अपने बढ़ने का श्रेय किसी और को देता है।

व्याख्या- पेड़ कवि से कहता है कि मैं तो बार-बार झुकता, गिरता, उखड़ कर नष्ट हो जाता या सूख कर ठूँठ बनकर टूट जाता। पर ऐसा हुआ नहीं। इसका यश तो मेरे पैरों के नीचे दबी हुई मिट्टी को जाता है जिसमें जाने कितनी दूर तक मेरी जड़ें फैली हुई हैं। मैं तो उन्हीं की आशा में उतना ही ऊपर उठा हुआ हूँ जितनी कि मेरी जड़े नीचे धरती में दूर-दूर तक फैली हुई हैं। इसमें मेरा कोई भी यश नहीं है। सारा श्रेय  इस नामहीन मिट्टी का है जिसमें मैं  उगा था और अब खड़ा हुआ हूँ। मिट्टी के अतिरिक्त मैं उन सभी को भी श्रेय देना चाहता हूँ जिनके कारण मैंने सबलता पाई है। मैं उस सूर्य को भी श्रेय देता हूँ जो प्रतिदिन निकलता है और धूप के रूप में मुझे प्रकाश और गर्मी देता है और शाम के समय डूब जाता है। मैं उस चंद्रमा को भी श्रेय देता हूँ जो रात्रि के समय अंधकार में कभी दिखाई देता है, तो कभी बादलों में छिप जाता है। मैं उन सभी ऋतुओं को भी श्रेय देता हूँ जो लगातार बदलती रहती हैं और उन बादलों को भी श्रेय देता हूँ जो उमड़- घुमड़ कर आते हैं और अपनी दया के कारण पानी बरसाते हैं। मैं उन सब बनने-मिटने वालों की देन को स्वीकार करता हूँ जिनके कारण आज मैं सबल खड़ा हूँ। पेड़ कहता है कि मैंने पिछले सौ वर्षों से यह शिक्षा प्राप्त की है कि जो मरण धर्मा हैं वे ही सच्चा जीवन प्रदान करने वाले हैं। वे आते हैं, दूसरों का भला करते हैं और चले जाते हैं।                                                                                         

                                                                                                                                                                                                                       अभ्यास

                                                            ()  विषय-बोध

1.निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक-दो पंक्तियों में दीजिए ---

i) पेड़ आँधी-पानी में भी किस तरह से अपनी जगह खड़ा है?

उत्तर- पेड़ आँधी-पानी में भी अपनी जगह मिट्टी में उसकी दूर-दूर तक फैली हुई जड़ों के कारण खड़ा है।

ii) सूरज, चाँद, मेघ और ॠतुओं के क्या-क्या कार्य कलाप हैं?

उत्तर- सूर्य धरती को धूप के  रूप में प्रकाश और गर्मी प्रदान करता है जिनके कारण पेड़ पौधे तथा अन्य प्राणी अपना जीवन सुख से बिताते हैं। चाँद रात्रि के समय हल्का उजाला देता है। बादल उमड़- घुमड़ कर वर्षा लाते हैं। ऋतुएँ  बदल-बदल कर पृथ्वी को भिन्न प्रकार का वातावरण प्रदान करती हैं।

iii) पेड़ में सहनशक्ति के अतिरिक्त और कौन-कौन से गुण हैं?

उत्तर- पेड़ में सहनशक्ति के अतिरिक्त मज़बूती, लंबी आयु, समझदारी, दूरदृष्टि, कृतज्ञता और विपरीत परिस्थितियों का आसानी से सामना करने की क्षमता आदि गुण होते हैं।

iv) पेड़ के बढ़ने और जड़ों के धरती में समाने का क्या संबंध है?

उत्तर- पेड़ के बढ़ने और जड़ों के धरती में समाने का बहुत गहरा संबंध है क्योंकि पेड़ की जड़ें जैसे-जैसे धरती में दूर तक फैलती जाती हैं, वैसे ही पेड़ की ऊँचाई और फैलावट भी बढ़ती जाती है।

v) पेड़ मिट्टी के अतिरिक्त और किस-किस को श्रेय देता है?

उत्तर- पेड़ मिट्टी के अतिरिक्त सूर्य, चंद्रमा, बादलों और ऋतुओं को श्रेय देता है।

vi) पेड़ ने क्या सीख प्राप्त की है?

उत्तर- पेड़ ने सीख प्राप्त की है कि 'जो मरण धर्मा हैं वे ही जीवनदायी हैं'

                                                              () भाषा-बोध

1. निम्नलिखित शब्दों का वर्ण- विच्छेद कीजिए ----

शब्द                -            वर्ण विच्छेद

पेड़                 -             प् + + ड़्  +

चाँद                -             च् + आँ + द् +

मेघ                 -             म् + + घ् +

मिट्टी               -             म् + + ट् + ट्+

शब्द            -       वर्ण-विच्छेद

सूरज           -        स्   +   + र् + + ज्+

ऋतुएँ          -        + त् + + एँ

पत्तियाँ         -        प् + + त् + त् + + य्+ आँ

जीवनदायी - ज्++व्+ + न् + + द् + + य् +

 

2. निम्नलिखित शब्दों के तत्सम रूप लिखिए ----

तद्भव            -          तत्सम

मिट्टी              -         मृतिका

सूरज              -         सूर्य

सिर                 -         शिरः (शिरस्)

पानी               -          वारि

तद्भव                -          तत्सम

चाँद                   -          चंद्र

पत्ता                   -          पत्र

सीख                  -         शिक्षा

सूखा                  -         शुष्क